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दिल तो बच्चा है जी : गुलजार और विशाल की शानदार जुगलबंदी

cinemanthan
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ये कहना अतिशयोक्ति न होगी कि फिल्म की सिचुएशन के हिसाब से ” दिल तो बच्चा है जी ” दशक का सबसे अच्छा गीत है। इस लिहाज से ये गीत पचास और साठ के दशक के उन फिल्मी गीतों के श्रेणी में शामिल हो जाता है जो फिल्म के प्रारुप, चरित्र की प्रकृति और स्थिति से मेल खाते थे और फिल्म के कथानक के प्रवाह के अनुकूल एक वातावरण तैयार करते थे।

प्रेम उम्र, रंग रुप, जाति और धर्म आदि की बंदिशें नहीं मानता। किसी से प्रेम हो जाना एक आकस्मिक घटना है और यह कहीं भी कभी भी घट सकती है। इसका आगमन जीवन में अतिथि की भाँति होता है। प्रेम व्यक्ति को बदलता ही बदलता है चाहे उसकी उम्र कुछ भी क्यों न हो। नया नया प्रेमी सपनों में विचरने के लिये विवश होगा ही होगा और इस बात से कोई अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह एक अनपढ़ व्यक्ति है या उच्च कोटि का विद्वान । हर नये प्रेम के साथ प्रेमी की कल्पना की उड़ान पतंग की भाँति आकाश में ऊँचे उड़ती ही है। प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हुये नये प्रेमी भी किशोर प्रेमियों जैसा महसूस और बर्ताव करने लगते हैं। इस बात का एहसास होने के बाद कि उन्हे प्रेम हो गया है बहुत सारी भावनाऐं सिर उठाने लगती हैं जिनके बारे में वे समझने लगे थे कि अब जीवन में कभी भी उनसे सामना न होगा और इसी के साथ उनकी सीमायें भी जागकर उनके इश्क की खुमारी को तोड़ने लगती हैं।

ऐसे प्रेमी एक साथ कई तरह की विरोधाभासी भावनाओं का सामना करने लगते हैं। परिपक्व व अनुभवी होने के बावजूद वे उसी घबराहट और बॆचैनी से गुजरते हैं जिससे कि जीवन में प्रथम बार प्रेम की अवस्था से गुजरने वाले किशोर प्रेमीगण।
हाँ कुछ समय बाद उम्र का अहसास भी हावी होने लगता है और वे सही और गलत के दर्पण से रुबरु होने लगते हैं। जमाने की चिन्ता उन्हे भी होने लगती है। रहा भी न जाये और सहा भी न जाये  वाली अवस्था से वे साक्षात्कार करने लगते हैं। अगर उन्होने अभी तक अपने प्रेमी के समक्ष अपने प्रेम का इज़हार नहीं किया है तो वे उससे भी हिचकिचाने लगते हैं कि उसे अगर हमारे प्रेम के बारे में पता चल गया तो क्या सोचेगा या सोचेगी। यहाँ तक की एक अवस्था ऐसी आती है जब प्रेमी सोचता तो सारे दिन है प्रेम और अपने प्रेमी के बारे में पर अपने आप के सामने ही स्वीकार करने से डरता है।
गुलजार साब ने बेहद खूबसूरती से एक प्रौढ़ावस्था को पार कर चुके एक आदमी की मनोदशा का वर्णन इस गाने में किया है।
अभी तो मैं जवां हूँ ” – मल्लिका पुखराज द्वारा गायी हुयी प्रसिद्ध गजल अभी तक एक बड़े आदमी के जवां दिल के अहसासों को बयां करती आयी थी पर अब गुलजार साब ने भी उस दिशा में एक कदम बढ़ा कर एक बेहतरीन गाने की रचना कर दी है जो सालों साल लोगों की भावनाओं को प्रस्तुत करता रहेगा।
गुलजार साब ने इस गाने में न केवल इस भावना को प्रक्षेपित किया है कि दिल जवां ही नहीं बल्कि एकदम बच्चा भी हो जाता है वरन प्रेम से थोड़ा ऊपर उठ कर उन्होने अपनी आदत व रुझान के मुताबिक एक सूफ़ियाना अन्दाज भी गाने में पिरो दिया है।
ऐसी उलझी नज़र उनसे हटती नहीं दाँत से रेशमी डोर कटती नहीं
उम्र कब की बरस कर सफ़ेद हो गयी कारी बदरी जवानी की छँटती नहीं
वल्लाह ये धड़कन बढ़ने लगी है चेहरे की रंगत उड़ने लगी है
डर लगता है तन्हा सोने में जी ।
दिल तो बच्चा है जी थोड़ा कच्चा है जी
किसको पता था पहलू में रखा दिल ऐसा पाजी भी होगा
हम तो हमेशा समझते थे कोई हम जैसा हाजी ही होगा
हाये जोर करें कितना शोर करें
बेवजह बातों पे ऐवंई गौर करें
दिल सा कोई कमीना नहीं
कोई तो रोके कोई तो टोके
इस उम्र में खाऒगे धोखे
ऐसी उदासी बैठी है दिल पे हँसने से घबरा रहे हैं
सारी जवानी कतरा के काटी पीरी में टकरा गये हैं
दिल धड़कता है तो ऐसे लगता है वो आ रहा है यहीं
देखता ही न हो
प्रेम की मारे कटार रे
तौबा ये लम्हे कटते नहीं क्यूँ
आँखों से मेरी हटते नहीं क्यूँ
डर लगता है खुद से कहने में जी
…..
दिल को आना था और वह आ गया किसी पर । उम्र होने के बावजूद दिल के किसी कोने में एक बच्चा हमेशा रहता है और वह मौका मिलने पर खिलवाड़ करने से कभी नहीं चूकता। जब व्यक्ति बालों में सफ़ेदी के आक्रमण को भी पार कर चुकता है तब उसे ये भान कभी नहीं होता कि अब उसे किसी से प्रेम हो जायेगा या किसी को उससे प्रेम हो जायेगा। अगर जीवन की आपाधापी में ज्यादातर समय अकेले या अनर्गल बातों में गुजरा है जहाँ ये रुककर ये सोचने का भी मौका न मिला हो कि जीवन कहाँ जा रहा है और क्या जीवन में प्रेम की गुंजाइश है और प्रेम ने पहले कभी दस्तक न दी हो दिल के दरवाजे पर तो प्रौढ़ावस्था में प्रेम करने और पाने का मौका मिलने पर आदमी के बौरा जाने के पूरे अवसर रहते हैं। पर अगर आदमी अपने मन में अपनी ये छवि बनाकर रहता हो कि जवानी तो कट ही गयी और मैं तो आध्यात्मिक रुझान वाला व्यक्ति हूँ और बुढ़ापा तो प्रभू के ध्यान में कट जायेगा तो ऐसे व्यक्ति का, उसके जीवन में प्रेम के आगमन से, थोड़ा हिल जाना स्वाभाविक है। वह असमंजस में रहेगा ही।
गुलजार साब ने इस गीत के माध्यम से साहित्य रचा है। विशाल भारद्वाज ने क्या खूब साथ दिया है गुलजार साब के शब्दों का। हल्के, रेशमी और कोमल तरीके से शुरु हुआ संगीत शुरु में प्रेम की छेड़छाड़ वाली अवस्था को बयां करती भावनाओं को स्वर लहरियों पर तैराता है और न केवल सुनने वाले के कानों बल्कि उसके दिल के साथ भी अठखेलियाँ खेलता है, उन्हे गुदगुदाता है और बाद में जब प्रेमी के मन पर इस कारण से उदासी छा जाती है कि अब शायद उम्र नहीं है प्यार की और अब तो समय प्रभू के ध्यान में मन लगाने का है, संगीत भी श्रोता को उदासी की घाटी में ले जाता है।
नसीर साब ने तो कमाल का अभिनय किया है इस गाने की मूल आत्मा को मुखरित करने के लिये। विदया बालन के माध्यम से निर्देशक, अभिषेक चौबे ने श्रंगार रस की पूर्ति इस गाने में की है। उन्होने इस गाने में बहुत बेहतर ढ़ंग से नसीर की भावनाओं को अपनी उपस्थिति से और ज्यादा प्रभावी बनाया है। अभिषेक ने गाने के फिल्मांकन में जान डाल दी है।
यह गाना इश्किया फिल्म का सबसे अच्छा और महत्वपूर्ण भाग है।

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